
Justice katju
भारत सरकार की आलोचना करने के लिए भोजपुरी लोकगायिका नेहा सिंह राठौर पर दर्ज हुए देशद्रोह के मामले ने एक जायज सवाल खड़ा कर दिया है. क्या लोकतंत्र में जनता को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है ?
सामंती युग में राजा का दर्जा सर्वोपरि था, और आम लोग राजा के आधीन थे. इसलिए लोगों को राजा की आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं था, और ऐसा करने पर उन्हें सजा दी जाती थी.
लोकतंत्र में यह रिश्ता पलट दिया जाता है I अब जनता सर्वोच्च है, और हर अधिकारी या अधिकारी वर्ग जनता का सेवक है. चाहे वो भारत का राष्ट्रपति हो, या संसद, मंत्री, न्यायपालिका, नौकरशाह, या पुलिस एवं सेना I निश्चित तौर पर जनता के पास अपने सेवकों की आलोचना करने का अधिकार है. और अगर सेवक ढंग से काम नहीं कर रहे हैं या कुछ गलत कर रहे हैं, तो उनकी जवाबदेही तय करने का भी अधिकार है I
सन 1947 में भारत के आजाद होने के बाद, 26 जनवरी 1950 के दिन देश में एक लोकतांत्रिक संविधान लागू किया गया I इस संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों को शामिल किया गया I इनमें अनुच्छेद 19(1)(अ) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भी शामिल था I
2008 में महाराष्ट्र बनाम भाऊराव पंजाबराव गवांडे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान निर्माताओं का पहला उद्देश्य एक ऐसा संविधान देना था जिससे एक सरकार स्थापित हो सके. लेकिन उनका दूसरा, उतना ही महत्वपूर्ण उद्देश्य, सरकार से जनता की रक्षा करना था I सुप्रीम कोर्ट ने कहा :
” इतिहास और इंसानी अनुभवों ने यह सीख दी है कि लोगों के अधिकारों की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण हैI हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता संग्राम के कड़वे अनुभवों को जिया, और देखा कि एक विदेशी सरकार ने कैसे हमारी जनता के मानव अधिकारों को ज़मीन में रौंदा और उसका हनन किया, जिनको बचाने के लिए पूरे देश ने कड़ा संघर्ष किया I अमरीकी राष्ट्रपति जेफरसन ( Jefferson ) की तरह उनका भी यही मानना था कि उनका संघर्ष ‘एक चुनी हुई तानाशाही वाली सरकार’ स्थापित करना नहीं था. और इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि देश के भीतर अराजकता और देश के बाहर आक्रमणों से निपटने के लिए सरकार को जो शक्तियां दी गईं, उनका दुरुपयोग लोगों की आजादी और उनके अधिकार छीनने में ना हो सके ” I
संविधान लागू होने के कुछ महीनों बाद ही सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने 1950 के रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मामले में कहा कि एक लोकतंत्र में लोगों के पास सरकार की आलोचना करने का अधिकार है. कोर्ट ने कहा, “सरकार के प्रति असंतोष या नकारात्मक भावनाओं वाली आलोचना अभिव्यक्ति या प्रेस की आजादी को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकती.”
मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस अब्दुल कुद्दोस ने थिरु एन. राम बनाम भारत संघ, 2020 मामले में ऐतिहासिक फैसले में यही रुख अपनाया.
https://indiankanoon.org/doc/152029618
विद्वान जज ने कहा, “लोकतंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नागरिक अपनी सरकार से ना डरें. उन्हें ऐसी राय व्यक्त करने से डरना नहीं चाहिए जो शायद सत्ता में बैठे लोगों को पसंद ना आए.” उन्होंने आगे कहा, “सरकार की नीतियों की आलोचना राजद्रोह नहीं है, जब तक कि अराजकता या हिंसा ना भड़काई जा रही हो.”
A very important aspect of democracy is that the citizens should have no fear of the Government. They should not be scared of expressing views which may not be liked by those in power. No doubt, the views must be expressed in a civilised manner without inciting violence but mere expression of such views cannot be a crime and should not be held against the citizens.
Criticism of the policies of the Government is not sedition unless there is a call for public disorder or incitement to violence. The people in power must develop thick skins. They cannot be oversensitive to people who make fun of them.
जस्टिस कुद्दोस ने 1956 के करतार सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, और कहा कि सत्ता में बैठे लोगों के अंदर आलोचना सहने की क्षमता होनी चाहिए I
आजकल सत्ता में बैठे नेता जरा-जरा सी बात पर आग बबूला हो जाते हैं, और अपनी किसी भी आलोचना को सह नहीं पाते, और अपने आलोचकों को किसी मन गढ़ंत अपराध में गिरफ्तार करवा देते हैं I ऐसे न जाने कितने मामले हैं I
एक गर्भवती युवा कश्मीरी महिला सफूरा जरगर को नागरिकता संशोधन कानून ( CAA ) की आलोचना करने लिए झूठे मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. डॉक्टर कफील खान, उमर ख़ालिद और शरजील इमाम के मामले भी इसी श्रेणी में आते हैं I
सोशल मीडिया पर ममता बनर्जी का कार्टून शेयर करने के लिए जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा को साल 2012 में गिरफ्तार कर लिया गया था, कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने अपने एक कार्टून में नेताओं को भ्रष्ट दिखाया था, और लोकगायक कोवन को साल 2015 में इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने शराब बिजनेस में भ्रष्टाचार को लेकर जयललिता की आलोचना की थी I
सरकार या किसी मंत्री की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर अक्सर देशद्रोह का केस थोप दिया जाता, उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और आतंकवादी गतिविधि विरोधी अधिनियम जैसे सख्त कानूनों के तहत हिरासत में ले लिया जाता है. उदाहरण के लिए, किशोरचंद वांगखेम को साल 2018 में मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की आलोचना करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया I उत्तर प्रदेश में पवन जयसवाल नाम के पत्रकार को साल 2019 में केवल इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मिर्ज़ापुर के एक प्राइमरी स्कूल में मिड डे मील में बच्चों को केवल रोटी और नमक दिया जा रहा है I
11 मई को गुजराती ऑनलाइन पोर्टल ‘फेस ऑफ दी नेशन’ के संपादक धवई पटेल को सिर्फ इस बात पर देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने लिखा था कि मुख्यमंत्री विजय रूपानी को उनके पद से हटाया जा सकता है I
ऐसे बहुत सारे उदाहरण दिए जा सकते हैं जब बदले की भावना से भरे नेताओं के इशारों पर गैर-कानूनी और अनुचित गिरफ्तारियां हुईं. सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट्स को भीष्म पितामह की तरह द्रौपदी के चीरहरण पर आंखें मूंद लेने की तरह, साफ नजर आ रहीं इन गैर-कानूनी गतिविधियों को नजरअंदाज कर देना चाहिए ?
https://m.thewire.in/article/law/supreme-court-constitution
फिर उन तमाम फैसलों का क्या मतलब रह जाएगा, जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने खुद को संविधान और जनता के अधिकारों का रक्षक बताया है ?
अपने कुछ शुरुआती फैसलों में से एक, 1952 के वीजी रो बनाम मद्रास राज्य ( V.G.Row vs State of Madras ) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “मूल अधिकारों के संबंध में कोर्ट को सतर्क प्रहरी की भूमिका सौंपी गई है ”. यह बात कई फैसलों में दोहराई गई है, जैसे आईआर कोएल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007), नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ (2018), शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ (2018), सी रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस एएम भट्टाचार्जी (1995), पद्मा बनाम हीरालाल मोतीलाल देसार्दा (2002), बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1982), इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992), आदि.
1970 के घनी बनाम जोन्स मामले में लॉर्ड डेनिंग ने कहा, “ इंग्लैंड के कानून एक व्यक्ति की स्वतंत्रता को इतना महत्व देते हैं कि इसे केवल ठोस आधारों पर रोका या सीमित किया जा सकता है ”
जब भी ब्रिटिश जज के सामने हेबियस कॉर्पस याचिका (अवैध हिरासत से रिहाई की याचिका) आती है, तो वह किसी भी और केस के ऊपर इसे प्राथमिकता देता है, क्योंकि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित होती है. लेकिन 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद कश्मीरी नेताओं की हेबियस कॉर्पस याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट का रुख कैसा रहा? मामले महीनों तक टाले गए, जबकि सरकार के करीबी माने जाने वाले अर्णब गोस्वामी की याचिका पर तुरंत सुनवाई हो गई. इससे क्या संदेश दिया गया ?
अब समय आ गया है कि अदालतें लोगों के आजादी की रक्षा करने के अपने पवित्र कर्तव्य को फिर से निभाएं.
हाल के एक फैसले ( जावेद अहमद हज्जाम बनाम महाराष्ट्र सरकार, 2024 ) में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से इस बात पर जोर दिया कि लोकतंत्र में जनता को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है.
https://indiankanoon.org/doc/32533784
कोर्ट ने कहा :
” भारत के प्रत्येक नागरिक को अनुच्छेद 370 के खात्मे और जम्मू-कश्मीर के दर्जे में बदलाव की आलोचना करने का अधिकार है I अनुच्छेद 370 के खात्मे वाले दिन को ‘काला दिन’ कहना विरोध और पीड़ा की अभिव्यक्ति है. यदि राज्य के फैसलों की हर आलोचना या विरोध को धारा 153 (अ) के तहत अपराध माना जाए, तो भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषता यानी लोकतंत्र जीवित नहीं रहेगा I वैध और कानूनी तरीके से असहमति का अधिकार उन अधिकारों का अभिन्न हिस्सा है जो अनुच्छेद 19(1)(अ) के तहत जनता को गारंटी के तौर पर दिए गए हैं. सरकार के फैसलों के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध का मौका लोकतंत्र का आवश्यक हिस्सा है. कानूनी तरीके से असहमति दर्ज करने का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत सम्मानजनक और सार्थक जीवन जीने के अधिकार का हिस्सा है ” I
अब नेहा सिंह राठौर के मामले की बात करें, तो यह स्पष्ट है कि उन्होंने न तो हिंसक विद्रोह का आह्वान किया और ना ही अराजकता पैदा की. उन्होंने केवल सरकार की आलोचना की थी.
ऊपर दी गई दलीलों से यह स्पष्ट है कि वे केवल भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(अ) के तहत मिले अभिव्यक्ति की आजादी के अपने मूल अधिकार का इस्तेमाल कर रही थीं, और उन्होंने कोई अपराध नहीं किया I